छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र जहां दीपावली नही विशेष दियारी मानने की है परंपरा ..... छत्तीसगढ़ समाचार TV

RKK की रिपोर्ट दुर्गुकोंदल :- दीपोत्सव सिर्फ भारत मे ही नही अपितु सात समंदर पार विदेशो में भी मनाई जाती है किंतु छत्तीसगढ़ का एक आदिवासी बाहुल्य बस्तर क्षेत्र में दीवाली के स्थान पर दियारी मनाने की समृद्ध परम्परा है।यह परम्परा दुर्गुकोंदल क्षेत्र में भी विद्यमान है,जहां के निवासियों द्वारा दियारी मनाई जाती है।दियारी धान कटाई के बाद दंडकारण्य अर्थात बस्तर क्षेत्र के ग्रामीण अंचलों में इसकी रौनक देखते ही बनती है। आमतौर पर दिवाली का मतलब होता है- धन की देवी माता लक्ष्मी की पूजा,दीये-मोमबत्ती, पटाखे-फूलझड़ियां वगैरह...। लेकिन बस्तर की दिवाली थोड़ी अलग है। यहां इस त्यौहार का नाम भी अलग है। लोग दिवाली नहीं ‘दियारी’ कहते हैं।धान की फसल खलिहान तक पहुंचने के बाद परपंरा अनुसार गांवों में तिहार मनाया जाता है। ग्रामीण कुल देवी और ग्राम देवी की पूजा-अर्चना कर गांव की खुशहाली की कामना करते हैं। वहीं कोठार में बांस के सूपे में धान रखकर पूजा की जाती है। मवेशियों को नहला-धुला कर खिचड़ी खिलाई जाती है व उनकी पूजा की परंपरा चली आ रही है।
शासकीय हाई स्कूल आमागढ़ में पदस्थ व्याख्याता संजय वस्त्रकार ने बताया कि दंडकारण्य अर्थात  बस्तर क्षेत्र में दीपावली पर्व को स्थानीय आदिवासी राजा दियारी कहते थे। बस्तर संभाग के समस्त ग्रामीण अंचल में आदिवासियों के अलावा माहरा, रावत, कलार, मरार, लोहार, कोष्टा, केवट, नाई आदि जाति के लोग धान कटाई के बाद दियारी मिलकर मनाते हैं। पर्व के बारे में आमागढ़ निवासी पुखराज उइके ने बताया कि गांव के सिरहा,पुजारी व पटेल के सहमित पर यह पर्व मनाया जाता है। दियारी के दिन ग्रामीण आसपास के गांव के अपने रिश्तेदारों व परिचितों को न्योता देते हैं। क्षमतानुसार भोज कराया जाता है। तीन दिन मनाए जाने वाले तिहार में पहले दिन ग्रामीण गांव की प्रमुख गुड़ी ( पूजा स्थल) में एकत्र होते हैं। वहां माता शीतला की पूजा-अर्चना कर गांव में खुशहाली की कामना कर दूसरे दिन सुबह महिलाएं आंगन को गोबर से लीपती है और प्रवेश द्वार से गाय कोठे तक लाल मिट्टी से दिशा निर्देश स्वरूप लीपकर चावल आटे के घोल से गाय बैल के पैरों के निशान बनाते हैं। पुरुष धान की बालियों से सेला बनाते हैं पशुओं को नहलाते धुलाते हैं। और घर की महिलाएं नए मिट्टी के बर्तन में पांच प्रकार के कंद और नए चावल से खिचड़ी तैयार करती हैं और पुरुष पूजा अर्चना कर के गाय बैलों को खिचड़ी खिलाते हैं। गाय-बैल को खिचड़ी का भोग खिलाने के पश्चात वहीं से गाय बैल का जूठन ग्रहण कर परिवार जन भोजन करते हैं।
           दुर्गुकोंदल निवासी मेहतरु यादव ने बताया कि यादव समुदाय के लोग गांव के प्रत्येक घरों में घूम- घूम कर गाय बैलों के गले में मोर पंख,पलाश की जड़ और ऊन से तैयार गेठा (सोहई) बांधते हैं। जिसके बदले में परिवार अन्न व पैसे देक विदा करते हैं। सुबह होते ही गोवर्धन पूजा का दौर शुरू होता है, इस दिन मवेशियों को खुद मालिक ही चरवाहा की तरह देखरेख करते हैं। घर में परिवार की सदस्य महिलाएं गाय बैलों के लिए नई हंडी में खिचड़ी या प्रसाद तैयार करती हैं।

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